hindisamay head


अ+ अ-

कविता

सुनो मेरे लोगों

संदीप तिवारी


मैं गाँव से नहीं
श्मशान से लौटा हूँ
लौटा हूँ
हड्डियों और राखों के ढेर पर खड़े होकर
उन हरी फसलों को देखकर
लौटा हूँ
जिसको हरा करने में
सूख गई कई-कई सदी
सूख गए
हमारे पुरखे-पुरनिये
सूख गई नदी
सूख के पीली हो गईं कितनी-कितनी उम्मीदें
मैं वहाँ से लौटा हूँ

मैं वहाँ से लौटा हूँ
जहाँ से लौटने वालों की लंबी कतारें हैं
जहाँ सभी अपने-अपने झोले में
गाय-गोबर की महक ठूँसे
गाँव को टाटा-बाय-बाय कह रहे हैं
जैसे कह रहे हों
कि हम इक्कीसवीं सदी के लोग
अपने पुरखे-पुरनियों की तरह
हरियाली उगाकर,
नहीं सुखाएँगे अपनी अंतड़ियाँ
हममें नहीं बची है इतनी ताकत,

न ही बची है इतनी ऊर्जा
मैं वहाँ से लौटा हूँ
जहाँ से लोग अपने झोले को सीने से लगाए
तकिया बनाए
ट्रेनों में जानवरों की तरह लदकर
भाग रहे हैं
एक चमकती दुनिया की तरफ
जहाँ ठगी के उद्योग स्थापित किए गए हैं
जहाँ गोबर की महक कहीं नहीं है
जहाँ सिर्फ बजबजाते नालों में
सड़ते प्लास्टिकों की भीषण दुर्गंध है
लोग वहाँ भाग रहे हैं
अपने झोले में उस आदिम महक को बचाते हुए...

मैं लौट जरूर रहा हूँ
पर लौटना नहीं चाहता
बल्कि लटक जाना चाहता हूँ
किसी बूढ़े पेड़ को पकड़कर
जिसने सुना हो
जीवन के उन तमाम गीतों को
जिनसे होकर उम्मीदों और सपनों की
एक नदी निकलती है
और जिसने महसूस किया हो
बारहा महसूस किया हो
मृत्यु की उन बेचैन कर देने वाली सिसकियों को
जो समय से पहले ही बिलखने लगती हैं...

मैं उस पेड़ के नीचे रुक जाना चाहता हूँ
जिसने भूख को नाचते हुए देखा हो
जिसने सुना हो उदास चूल्हों के कोरस
जिसने सीता से ज्यादा सूर्पनखा को देखा हो
जिसने कई-कई बालि और सुग्रीव देखे हों
मैं उस पेड़ की किसी डाली पर छिप जाना चाहता हूँ
किसी छापामार लड़ाके की तरह
और उन डालियों के बीच से ही
शुरू करना चाहता हूँ एक युद्ध
मुनाफाखोरों के खिलाफ
उन हजारों चोरों के खिलाफ

मैं उसी पेड़ से युद्ध का बिगुल बजाना चाहता हूँ
जिसके नीचे चरते हों घास
धँसे पेट वाले बछड़े
जिन्हें चराने के लिए आते हों कृष्ण
वह कृष्ण जो अब भूल चुके हैं
माखन खाने और चुराने की कला
ठीक उसी पेड़ के नीचे
जो कृष्ण और बछड़े की पाठशाला है
जहाँ एक ही साथ दोनों ने
चरना और चराना सीखा
उसी पेड़ के नीचे
जहाँ टहलती हैं बिना सींघ वाली गायें
जहाँ कूदते हैं
बिना सींघ वाले बछड़े
और बिना गोपियों वाले कृष्ण
मैं वहीं रुक जाना चाहता हूँ
सुना हूँ कृष्ण दूध नहीं पाते हैं अब
इसलिए भाग रहे हैं वृंदावन से दिल्ली
छोड़ रहे हैं गाँव...!

जा तो रहे हो पर इतना सुन लो
कुछ भी हो वापस आ जाना
आ जाना अपनी मिट्टी के लिए
वापस आ जाना
अपने लिए न सही
अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए
वापस आना और इकट्ठा कर लेना सबको
इसी पेड़ के नीचे
लड़ना पड़े तो लड़ भी लेना
इस महक को बचाने के लिए
इस हरियाली को बनाने के लिए
लड़ना पड़े तो लड़ लेना
गोबर और गोपियों के अस्तित्व के लिए
न कुछ हो तो लड़ना सिर्फ लड़ने के लिए
लड़ना इसलिए
कि जब पानी पेड़ के ऊपर से बहने लगे
तब शांति की सारी दलीलें निरर्थक हो जाती हैं...।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में संदीप तिवारी की रचनाएँ